बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्र बीए सेमेस्टर-3 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्र
अध्याय - 3
शुंग एवं सातवाहन कला
(Shunga and Satavahana Art)
प्रश्न- शुंग काल के विषय में बताइये।
उत्तर -
शुंगकाल (Sunga Period) (समय 187-75 ई. पू.) - दूसरी शताब्दी ई.पू. के आरम्भ में मौर्य साम्राज्य की शक्ति समाप्त होने लगी और यवनों के आक्रमण ने मौर्य साम्राज्य को निर्बल कर दिया। इसी समय में शुंग वंश के अधिष्ठाता पुष्यमित्र ने मौर्य वंश का अंत करके शुंग वंश की विजय पताका फहराई। मौर्य सम्राट् अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिये कला (स्थापत्यत था शिल्प) का माध्यम अपनाया था, शुंगों के काल में वह परम्परा प्रचलित रही। इसके साक्षी शुंगकालीन अर्ध- चित्र हैं। अजंता की शुंग कालीन गुफाओं से उस समय की चित्रकला की उन्नत व्यवस्था का ज्ञान होता है। मौर्यों के पतन के पश्चात् शुंग राजाओं ने ब्राह्मण-धर्म का अत्यधिक प्रचार किया। प्रसिद्धग्रन्थ 'मनुस्मृति' की रचना इसी समय हुई। कला की रूपरेखा, आकार, प्रकार, भाव-भंगिमा और बाह्य इंगित चेष्टाओं में अन्तर आ गया था। मौर्य कला सादी और सौम्य सौष्ठव के लिये होती थी, किन्तु शुंग कलाकार शरीर की गठन, अंग-प्रत्यंग की पूर्णता और भाव-प्रदर्शन पर बहुत जोर देते थे। पत्थर की खुदाई और नक्काशी के काम में अत्यधिक उन्नति हुई थी। शुंग, कण्व और सातवाहन वंश के शासक कट्टर ब्राह्मण थे। अतएव शिव, विष्णु, ब्रह्मा, सूर्य, इन्द्र, माँलक्ष्मी, माँदुर्गा आदि देवी - देवताओं की प्रतिमाएँ बनने लगीं। ब्रह्मा - सृष्टि का सर्जक, विष्णु समस्त जड़-जंगम, चर-अचर का पालन पोषण करने वाला और शिव- जिनकी भृकुटी में नाश और निर्माण की शक्ति निहित थी - इस तरह मूर्तियों के विधान में भक्तों के अचिन्त्य अनुग्रह को साकार करने लगे।देव मूर्तियों के साथ-साथ चैत्यों और मंदिरों की आवश्यकता भी अनुभव हुई। पारमार्थिक सत्ता जागतिक प्रतीति की अवहेलना करती हुई गूढ़ भावों की व्यंजना में खो गई। यूरोपियन मूर्तियों की भाँति उसमें दैहिक और आत्मिक द्वन्द्वन था, वे तो लोकोत्तर आनन्द की सृष्टि करती हुई तुरन्त ही दर्शक को अपनी पावनता से अभिभूत कर लेती थीं।
साँची, भरहुत, बोध गया और उड़ीसा की शुंगकालीन कला में देवी-देवताओं की मूर्तियों में ऐसी चैतन्य शक्ति निहित है जो गूढ़, सोद्देश्य और अर्थ व्यंजक तो है ही, अचिन्त्य, अपरिमेय, ब्रह्म की पारलौकिक सत्ता का भी आभास देती है। वैष्णव धर्म में जैसे-जैसे भगवान राम और भगवान कृष्ण की लीलाओं और अवतार कल्पना के नये आख्यान जुड़ते गए, कला का भी व्यापक प्रसार होता गया। बौद्ध धर्म में अभी तक मूर्ति पूजा का प्रचलनन था, पर भागवत धर्म के प्रभाव से ये लोग भी भगवान बुद्ध की प्रतिमाएँ गढ़ने लगे। उपास्य के पूर्णत्व को साकार करने के लिए मूर्ति शिल्पी को गहरी भूमिका में उतरना पड़ता है। भाव-भंगिमा, अध्यात्म भाव और सरल सुस्पष्ट देवतत्व को दर्शाने के लिए कलात्मक कल्पना अधिक प्रौढ़ और सूक्ष्म हो गई थी। वेसनगर, बड़ौदा के परखम ग्राम से प्राप्त मणिभद्र यक्ष की मूर्ति, पटना से प्राप्त एक दूसरी यक्ष मूर्तित था दीदारगंज (पटना) की सुविख्यात विशालकाय - चामरधारिणी यक्षी की मूर्ति जो मौर्य कालीन कही जाती है तथा सांचीव भरहुत के वृहद् स्तूपों की यक्ष- यक्षणियों की मूर्तियों की इधर की शुंग- सातवाहनकालीन मूर्तियों से तुलना करने पर स्पष्ट अन्तर दिखाई पड़ता है। भारी डीलडौल और निर्माण-प्रक्रिया उच्च परम्पराओं के विकास की द्योतक होते हुए भी उनमें उतनी उत्कृष्ट भावना परिलक्षित नहीं होती, लेकिन समय की प्रगति के साथ अंतरं गचिंतन अधिकाधिक उभरता गया। भागवत धर्म, शैव-धर्म और बौद्ध धर्म से प्रेरित प्रतिद्वन्द्वी भावनाओं ने एक-दूसरे से बढ़कर सबल इंगितों द्वारा दर्शक को अभिभूत करने की चेष्टा की। मूर्तियों की आनुपातिक गढ़न में तो अंतर आ ही गया था, भावाभि व्यक्ति में भी पर्याप्त अन्तर दिखाई पड़ता था। इस युग में अनेक सुन्दर स्तूपों का निर्माण हुआ और शिला लेख भी लिखे गये। पर्वत की विशाल चट्टानों को काटंकर गुफायें भी बनाई जाती थीं जो चैत्य और विहार गुफायें कही जाती थीं। 'विहार' बौद्ध भिक्षुओं को रहने के लिये और 'चैत्य' मन्दिरों के रूप में उपासना के लिए बनाए जाते थे। नासिक में बौद्ध भिक्षुओं की गुफायें, उड़ीसा में खण्डगिरि की गुफायें और उदय गिरिकी गुफायें, काले कन्हेरी भाजा की गुफायें और कार्ले के बौद्धचैत्य इसी पद्धति से चट्टानों को काटकर बनाए गये हैं। इन चैत्यों और गुफाओं की स्तम्भ पंक्तियों, दीवारों और दरवाजों को सुन्दर चित्रों और मूर्तियों से भी अलंकृत किया जाता था। कार्लेके चैत्य-विहारों के आश्चर्यकारी, जीवन्त शिल्प को देखकर तत्युगीन कला के वैविध्य और अलंकरणों के प्राचुर्य के दर्शन किये जा सकते हैं। महाराष्ट्र में ऐसी गुफायें 'लेण' और उड़ीसा में 'गुम्फाएँ' कहलाती थीं। सातवाहन काल में स्तम्भों की परम्परा भी सर्व था लुप्त न हुई। विदिशा का सुप्रसिद्ध 'गरुड़ध्वज' जिसकी द्वितीय शताब्दी ई. पू. यूनानी राजदूत हेलि ने स्थापना कराई थी, हिन्दू-यूनानी वास्तु को सुन्दर निदर्शन है फिर भी उसमें अशोक स्तम्भों की सी चमक और ओप नहीं है।
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